फूलपुर: गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनावों में सपा प्रत्याशी की बढ़त के बीच सपा के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव ने कहा है कि बीएसपी के गठबंधन की बदौलत हम जीत रहे हैं. दरअसल बीएसपी ने उपचुनाव में अपने किसी प्रत्याशी को नहीं उतारा था और पार्टी प्रमुख मायावती ने सपा के साथ तालमेल की बात करते हुए समर्थन देने की बात कही थी. उसी पृष्ठभूमि में रामगोपाल यादव के इस बयान के मायने निकलते हैं.
इसके साथ ही इस तालमेल को 2019 लोकसभा चुनावों के लिहाज से दोनों दलों के लिए लिटमेस टेस्ट के रूप में भी देखा जा रहा था. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक यानी यदि ये तालमेल गोरखपुर और फूलपुर में कामयाब होगा तो अगले लोकसभा चुनावों में ये दोनों दल ‘मोदी लहर’ को रोकने के लिए महागठबंधन बना सकते हैं. ऐसे में सपा की बढ़त के साथ बीएसपी को क्रेडिट देकर रामगोपाल यादव ने संभावित सियासी बिसात के संकेत दे दिए हैं. उल्लेखनीय है कि 1993 के बाद पहली बार सपा और बसपा के बीच इन चुनावों में तालमेल हुआ है. 1995 में इस गठबंधन के टूटने के बाद दोनों दलों के बीच लंबे समय तक कड़वाहट देखने को मिली.
लिटमेस टेस्ट
वर्ष 1993 में सपा नेता मुलायम सिंह और बसपा नेता कांशीराम ने पहली बार सपा-बसपा का गठबंधन किया था. नतीजतन विधानसभा चुनावों में सपा को 100 से ज्यादा और बसपा को 67 से मिली थीं. इस तरह पहली बार सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी थी लेकिन 1995 में बसपा के गठबंधन तोड़ने की घोषणा और ‘गेस्टहाउस’ कांड के बाद सियासी विरोध निजी हो गया और उसके 25 बाद अब फिर दोनों दलों ने कड़वाहट खत्म करने के संकेत दिए थे. हालांकि उस दौर में मुलायम सिंह और कांशीराम ने ‘राम लहर’ को रोकने में तो सफलता हासिल कर ली थी लेकिन इस दौर का बड़ा सवाल यह है कि क्या अब माया व अखिलेश मिलकर मोदी लहर को रोकने में कामयाब होंगे?
वर्ष 1993 में राम लहर के दौरान जब मुलायम और कांशीराम ने गठबंधन किया था, तब सियासत का रुख अलग था और दोनों चेहरों की चमक भी अलग थी. तब के दौर में मंडल आयोग ने ओबीसी वोटरों को एकजुट किया था और मुलायम सिंह यूपी में उनका निर्विवाद चेहरा थे. इसीलिए यह जातीय गठजोड़ ‘राम लहर’ को रोकने में कामयाब हो गया था. अब ‘मोदी लहर’ को रोकने के लिए इस तालमेल का लिटमेस टेस्ट हो रहा है.
अखिलेश यादव और मायावती
अखिलेश यादव और मायावती के लिए परिस्थतियां अलग हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में ‘मोदी लहर’ के सामने बसपा का जहां खाता नहीं खुला था, वहीं अखिलेश की पार्टी केवल परिवार की सीटें ही बचाने में कामयाब हो पाई. इसके बाद 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में एक बार फिर मोदी लहर चली और भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला. सपा-बसपा को एक बार फिर करारी हार का सामना करना पड़ा. दोनों परिस्थतियों में अंतर यह भी है कि तब मुलायम-कांशीराम के साथ ओबीसी तबके की उम्मीदें जुड़ी थीं, लेकिन बदलते परिवेश में अखिलेश-मायावती के सामने ओबीसी की उम्मीदें टूटती दिखाई दे रही हैं और दोनों नेता सियासत के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं.
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