कैराना: कहने को कैराना शिवालिक की तराई में बसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा ऊंघता हुआ कस्बा है. रमजान के पाक महीने में 42 डिग्री पर तपता सूरज यहां भी रोजेदारों के ईमान का इम्तिहान ले रहा है. आम के बगीचों में छोटी-छोटी अमियां इतराती डालियों को झुकना सिखा रही हैं, ताकि वे जमीन के करीब पहुंच सकें. पुराने व्यस्त बाजार में शाम होते-होते फलों की दुकानों पर अच्छी खासी भीड़ उमड़ती है, आखिर रोजा तो इन्हीं रसदार फलों से टूटना है.
लेकिन ढर्रे पर चलती इस जिंदगी के बीच आम के बगीचों से भीड़ भरे बाजार तक सबको पता है कि भारतीय संगीत को किराना घराना की सौगात देने वाले अब्दुल करीम खां साहब के शहर में चुनाव की नई किस्म की रणभेरी बज रही है. वैसे तो यह एक मामूली सा चुनाव है, जो यहां के सांसद रहे हुकुम सिंह के निधन के बाद जरूरी हो गया था. और भारतीय राजनीति की रवायत के मुताबिक उनकी बेटी मृगांका यहां से चुनाव मैदान में हैं. लेकिन जितना यहां के लोगों को पता है, उससे कहीं ज्यादा बाहर की दुनिया को पता है कि यह लोकसभा उपचुनाव भारत की राजनीति में कितना बड़ा असर डालने वाला है.
हो सकता है इसका असर 1978 के चिकमंगलूर लोकसभा उपचुनाव जैसा हो, जिसने इमरजेंसी के बाद सत्ता से बाहर हुईं इंदिरा गांधी को विजय तिलक लगाकर सत्ता में उनकी वापसी का रास्ता खोला था. हो सकता है इसका असर 1988 में इलाहाबाद के उपचुनाव में वीपी सिंह की जीत के साथ शक्तिशाली कांग्रेस के स्थायी पराभव की शुरुआत जैसा हो. यह असर कैसा होगा यह 28 मई की वोटिंग के बाद साफ हो जाएगा, लेकिन शामली जिले की तीन और सहारनपुर जिले की दो विधानसभाओं को मिलाकर बने कैराना लोकसभा सीट में जमीन पर कैसी बिसात बिछी है, यह अभी ही जाना जा सकता है-
जहां जाट, वहां जीत
जो भी हो कैराना है तो यूपी में ही. ऐसे में कोई भी सियासी बात शुरू करने से पहले यहां के धार्मिक और जातीय ढांचे को परखना जरूरी है. 16 लाख वोटरों वाले कैराना में लोगों की जुबान पर जो जातिगत समीकरण चढ़ा हुआ है उसके मुताबिक यहां 5 लाख से अधिक मुस्लिम वोटर हैं. दलित वोटरों की संख्या दो लाख से अधिक है, इसमें भी बड़ी संख्या जाटव वोटरों की है. यहां की प्रभावशाली जाट जाति के वोट सवा लाख के आसपास हैं. दूसरी प्रभावशाली जाति गुर्जर के भी सवा लाख के करीब वोट हैं. अन्य पिछड़ी जातियों के करीब 3 लाख वोट हैं. इसके अलावा अगड़ों के वोट तो हैं ही.
अब जरा इन जातियों का झुकाव देखें तो अगड़ी जातियां, अति पिछड़ी जातियां और गुर्जर पूरी तरह से बीजेपी के साथ लामबंद दिखाई देते हैं. गुर्जरों की लामबंदी की मुख्य वजह यह है कि बीजेपी प्रत्याशी मृगांका गुर्जर समुदाय से आती हैं. शाक्य, सैनी, प्रजापति आदि अति पिछड़ी जातियां बीजेपी के साथ पुरजोर तरीके से खड़ी हैं.
उधर, राष्ट्रीय लोकदल की प्रत्याशी तबस्सुम हसन को सपा और बसपा का समर्थन हासिल है. उनके साथ पांच लाख मुसलमान और दो लाख दलितों का समर्थन दिखाई देता है. हालांकि इसमें कुछ पेच भी हैं, उनकी चर्चा आगे करेंगे.
इस तरह देखा जाए तो दोनों प्रत्याशियों का जनसमर्थन बराबरी का बैठता है. ऐसे में पलड़ा उसी तरफ झुकेगा जिसकी तरफ यहां का सबसे प्रभावशाली जाट वोटर जाएगा. अगर अजित सिंह किसी तरह अपने प्रत्याशी को 40 फीसदी तक जाट वोट दिला सकें तो उनकी जीत तय हो जाएगी. और अगर बीजेपी के जाट मंत्री-सांसद और एक दर्जन से अधिक जाट विधायकों ने जाट वोटर खिसकने नहीं दिया तो बीजेपी जीतेगी. पलड़े को अपनी तरफ झुकाने के लिए दोनों ओर से मशक्कत जारी है.
बीजेपी का मंत्र- मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री
बीजेपी गोरखपुर और फूलपुर में खट्टा खाए बैठी है. ऐसे में वह हर हाल में चाहती है कि कैराना से मीठे आम ही उसके हिस्से में आएं. पार्टी पिछले तीन महीने से बूथ लेवल पर काम में जुटी है. लंबी चुनावी तैयारी के बाद बीजेपी यूपी के संगठन मंत्री सुनील बसंल खुद रणनीतिक तैयारियों को फाइनल टच दे रहे हैं. दूसरी तरफ केंद्रीय मंत्री सतपाल सिंह, संजीव बालियान और राज्य के गन्ना मंत्री सुरेश राणा प्रचार अभियान में जुटे हुए हैं.
प्रचार को और हाईप्रोफाइल बनाने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 22 मई को सहारनपुर में सभा की और 24 मई को वे शामली में सभा करेंगे. पिछले साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी से हिंदुओं के पलायन का मुद्दा उठाने वाले योगी ने सहारपुर के अंबेहटा में हुंकार भरी कि दंगों के जख्म अभी भरे नहीं हैं.
उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने तो कैराना में डेरा ही डाल लिया है. उनकी पूरी कोशिश है कि जाट वोट आरएलडी की तरफ न जा सकें. इसलिए वह बार-बार याद दिला रहे हैं कि तबस्सुम हसन आरएलडी की उधार की प्रत्याशी हैं, असल में तो वे सपा की प्रत्याशी हैं. मौर्य जानते हैं कि आरएलडी के हैंडपंप से जाटों का प्यार बहुत गहरा है, ऐसे में उन्हें याद दिलाया जाए कि आरएलडी सपा की साइकिल पर सवार है.
मंत्री और मुख्यमंत्री के बाद प्रकारांतर से बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस चुनाव में खींच लाएगी. वोटिंग से एक दिन पहले प्रधानमंत्री कैराना से 60 किमी दूर बागपत में ईस्टर्न पेरिफेरल रोड का उद्घाटन कर रहे होंगे. यहां अजित सिंह के गृह नगर में पीएम की सभा होगी. जाहिर है यहां प्रधानमंत्री कुछ ओजस्वी बात कहेंगे ही, जिसका लाभ लेने की कोशिश बीजेपी करेगी. प्रधानमंत्री की मौजूदगी इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे उपचुनावों में प्रचार नहीं करते हैं.
अजित सिंह लड़ रहे वजूद की लड़ाई
चौधरी अजित सिंह देश के सबसे प्रतिष्ठित किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे हैं. चौधरी साहब को आज भी पश्चिमी यूपी में देवता की तरह पूजा जाता है. उनकी प्रतिष्ठा का हाल यह है कि आरएलडी की विरोधी पार्टियां यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी तक अपने प्रचार अभियान में चौधरी साहब का नाम लेना नहीं भूलते.
चौधरी साहब के जमाने में और उसके बाद भी जाट-मुस्लिम समीकरण आरएलडी की सबसे बड़ी पूंजी रहा. लेकिन 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने जाट और मुसलमान को एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया. इन बदले हालात में 2014 में जब मोदी लहर उठी तो जाट अजित सिंह से छिटकर बीजेपी के पाले में चले गए. चुनाव में जाटों ने आरएलडी से ऐसा मुंह फेरा कि बागपत से अजित सिंह खुद चुनाव हार गए, तो उनके दूसरे गढ़ कैराना में बीजेपी के प्रत्याशी हुकुम सिंह 5 लाख से अधिक वोट मिले, वहीं आरएलडी प्रत्याशी 50,000 वोट को तरस गए. लोकसभा चुनाव में आरएलडी को कोई सीट नहीं मिली.
उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भी जाट और मुसलमान दोनों ने आलएलडी को खारिज कर दिया. जाट एकमुश्त बीजेपी के साथ गए तो मुसलमानों ने बड़ी संख्या में सपा को वोट दिया. हाल यह हुआ कि आरएलडी को अजित सिंह के घर की सीट छपरौली ही मिली. और बाद में वह विधायक भी बीजेपी के साथ चले गए. कभी पूरे यूपी पर राज करने वाले चौधरी के पास आज हर तरफ शून्य है.
ऐसे में सपा-बसपा ने अपना प्रत्याशी खड़ा करने की बजाय 2014 में कैराना में महज 3.5 फीसदी वोट पाने वाली आरएलडी को टिकट दिया है तो यह उसके लिए करो या मरो का मौका है. सपा ने जाट की जगह मुस्लिम प्रत्याशी को देकर उनके सामने कड़ी चुनौती रखी है. अगर अजित सिंह अपने मुस्लिम प्रत्याशी को जाटों का वोट दिला देते हैं तो वे न सिर्फ सीट जीतेंगे, बल्कि 2019 के महागठबंधन का हिस्सा भी बन जाएंगे. अगर वे हारते हैं तो 81 वर्ष की उम्र में उनकी राजनीति खत्म हो जाएगी और उनके बेटे जयंत का करियर मंझधार में फंस जाएगा.
अजित की चुनौती यह भी है कि जहां बीजेपी के लिए सीएम-पीएम सब मैदान में हैं, वहां उनके लिए प्रचार करने अब तक अखिलेश या मायावती नहीं आए हैं और न ही आने का कोई प्लान है. यहां बाप-बेटे को जाट स्वाभिमान के नाम पर खुद ही वोट मांगना है. मोदी सरकार में चौधरी चरण सिंह के जमाने से दिल्ली में मिला बंग्ला तक खो बैठे अजित सिंह अब गांव-गांव जाकर वोट मांग रहे हैं.
जाटों को मनाने के लिए वे सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा ले रहे हैं. 19 मई को वह शामली जिले के लिसाढ़ गांव गए. यह गांव 2013 दंगों में बुरी तरह प्रभावित हुआ था. गांव के बहुत से मुसलमान तभी पलायन कर गए थे और अब यहां ज्यादातर जाट हैं. यहां के जाट लड़कों पर बड़ी संख्या में मुजफ्फरनगर दंगों के मुकदमें दर्ज हैं. चौधरी ने गांव में कहा कि वे मुसलमानों को समझाकर मुकदमे वापस कराएंगे. उन्होंने कहा कि चौधरी साहब के जमाने का जाट-मुस्लिम एकता का जमाना वापस लाना है.
यह सपा-बसपा या खुद को सेकुलर मानने वाले दलों की उस लाइन से अलग है जिसमें तुष्टीकरण की बजाय नीति की बात कही जाती है. वोटों के लिए अजित सिंह पीड़ितों को न्याय दिलाने के बजाय आरोपियों को बचाने की कोशिश का वादा कर रहे हैं. लेकिन इस वादे का तब कितना असर होगा जब खुद मुख्यमंत्री फरवरी में ही मुकदमे वापसी की पहल कर चुके हों. और बीजेपी बराबर कह रही हो कि वह मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपियों के मुकदमे वापस लेगी.
कंवर हसन को नजरंदाज न करें
कैराना चुनाव की बात होती है तो इसे बीजेपी और गठबंधन के बीच की लड़ाई के तौर पर ही देखा जाता है. लेकिन यहां एक तीसरा खिलाड़ी है जो गठबंधन को नुकसान पहुंचा सकता है. ये हैं निर्दलीय प्रत्याशी कंवर हसन. हसन राष्ट्रीय लोक दल प्रत्याशी तबस्सुम हसन के देवर हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में वे बसपा से खड़े हुए थे जबकि तबस्सुम के बेटे नाहिद हसन सपा से खड़े हुए थे. उस चुनाव में कंवर हसन को 1.66 लाख वोट मिले थे. जाहिर है कि इस बार वे बसपा से नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन अगर वे 50,000 वोट भी ले आए तो आरएलडी के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी.
वैसे हैं सब गुर्जर ही
कैराना चुनाव में धर्म, जाति और वोटों का इतना विश्लेषण करने के बाद एक बात और जान लीजिए कि यहां तीनों प्रमुख प्रत्याशी गुर्जर हैं. अगर मृगांका हिंदू गुर्जर हैं तो तबस्सुम और कंवर हसन दोनों मुस्लिम गुर्जर हैं. इस तरह से तीनों प्रत्याशी मूल रूप से एक ही जाति के हैं, लेकिन सियासत के समीकरणों ने उन्हें इतना दूर कर दिया है कि कैराना देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बेबस प्रयोगशाला बनकर रह गया है.
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