देहरादून: हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्री पर्यावरण संरक्षण की एवज में केंद्र से अपने वार्षिक बजट का 15 प्रतिशत की मांग कर. 28 जुलाई से मसूरी में हिमालयी राज्यों का सम्मेलन होने जा रहा है. इसमें हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्री इकट्ठा होंगे. इस सम्मेलन में नीति आयोग के उपाध्यक्ष, 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष सहित केंद्र के कई अधिकारी हिमालय राज्यों की समस्याओं को सुनने के लिए मौजूद रहेंगे.
कई मुद्दों पर होगी चर्चा
10 साल बाद हिमालयी राज्य एक बार फिर एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं. इस बार मसूरी में अपनी साझा समस्याओं और केंद्र से मदद की आस में ये सम्मेलन किया जा रहा है. इस सम्मेलन में मुख्य रूप से कुछ ऐसे बिंदुओं पर चर्चा होनी है, जिससे सभी हिमालय राज्य जूझ रहे हैं. हिमालयी राज्यों के ऊपर पर्यावरण के संरक्षण की बड़ी जिम्मेदारी है. इसलिए कई बड़ी परियोजनाएं यहां पर्यावरण के कारण मंजूर नहीं होती. उद्योग भी पहाड़ में ज्यादा लागत लगने के कारण विकसित नहीं हो पाते. ऐसे में सभी राज्य इसकी एवज में केंद्र से मदद चाहते हैं.
केंद्र से सहयोग की आशा
केंद्र भी इन संवेदनशील राज्यों की चिंता से वाकिफ है. इसलिए 15 वें वित्त आयोग ने जब राज्यों से चर्चा की तो इस मुद्दे पर सकारात्मक रुख रखते हुए राज्यों के वार्षिक बजट का 7. 5 प्रतिशत तक अनुदान देने की बात कही. लेकिन हिमालयी राज्य सम्मेलन में केंद्र से ज्यादा की मांग करने वाले है. हिमालयी राज्य पर्यावरण संरक्षण के लिए संबंधित राज्य के वार्षिक बजट का 15 प्रतिशत ग्रीन बोनस की मांग कर रहे हैं.
ईको सर्विसेस के लिए ज्यादा मिलना चाहिए बजट
इंटीग्रेटेड माउंटेन इनिशिएटिव (IMI ) के उत्तराखंड चैप्टर के कॉउंसलर और इस आयोजन का मुख्य जिम्मा संभाल रहे डॉ राजेंद्र डोभाल कहते हैं कि उत्तराखंड सहित सभी हिमालयी राज्य आपदाओं से प्रभावित हैं. हिमालयी क्षेत्र पर्यावरण संरक्षण भी करता है. इसलिए 15वें वित्त आयोग से ईको सर्विसेस के लिए बजट का सिर्फ 7.5 प्रतिशत नहीं बल्कि इससे ज्यादा मिलना चाहिए. डॉ डोभाल आगे कहते हैं कि उत्तराखंड सहित सभी हिमालयी राज्यों में बारिश, लैंड स्लाइड और बदल फटने की घटनाए होती हैं. ऐसे में जब मैदानी राज्य नए काम करने की योजना बनाते हैं तो हिमालयी राज्य पुरानी सड़कों को ठीक करने की कोशिश और बुनियादी सुविधाओं को फिर से जोड़ रहे होते हैं.
इसलिए हो रहा है पलायन
हिमालयी क्षेत्रों में बारिश से लैंड स्लाइड, बादल फटने और भूकंप के खतरे मैदानी क्षेत्रों के मुकाबले कहीं गुना ज्यादा हैं. इसके अलावा उत्तराखंड सहित कई राज्य पलायन जैसी समस्या से भी परेशान हैं. उत्तराखंड जैसे राज्य में 88 प्रतिशत भूभाग पहाड़ी है, जबकि जनसंख्या के लिहाज से मैदानी इलाकों में इतनी आबादी रहती है. सुविधाओं और प्राकृतिक आपदाओं के कारण पहाड़ों से पलायन ज्यादा हो रहा है. हिमालयी राज्यों का एक और तर्क है कि पहाड़ों में बादल फटने, लैंड स्लाइड और दूसरे कारणों से नए काम शुरू ही नहीं हो पाते. जबकि मैदानी इलाकों में हर साल नए काम शुरू होने से विकास को गति मिलती है. इस कारण पहाड़ विकास की दौड़ में पीछे हो रहे हैं.
विकास के लिए केंद्र से ज्यादा मदद की जरूरत
पहाड़ में छोटी-छोटी दूरी तय करने में मैदानों की तुलना में ज्यादा समय लगता है. साथ ही कोई भी निर्माण करने में लागत मैदानी राज्यों की तुलना में कई गुना बढ़ जाती है. ऐसे में पहाड़ों को विकास के लिए केंद्र से ज्यादा मदद की जरूरत होती है. हिमालयी राज्यों की सीमाएं पाकिस्तान, चीन और नेपाल से भी लगती हैं. ऐसे में ये क्षेत्र और ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं. अब देखना ये है कि केंद्र हिमालयी राज्यों की बात कितनी गंभीरता से सुनता है और इनकी कितनी मांगों को मानता है.
Bureau Report