नई दिल्ली: अफगानिस्तान (Afghanistan) से अमेरिकी सैनिक वापस लौट रहे हैं और तालिबान (Taliban) धीरे-धीरे अफगानिस्तान पर कब्जा करता जा रहा है. तालिबान तेजी से अपने इलाकों को बढ़ाने में जुटा है और हालात ये हैं कि अफगानिस्तान की सरकार (Afghanistan Govt) लगभग 85 प्रतिशत हिस्सों पर या तो जंग लड़ रही है या फिर तालिबान के हाथों इलाके को गंवा चुकी है. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि अफगानिस्तान में तालिबानी आतंक लौट आया?
पुराने आतंक और दहशत के साथ लौटा तालिबान?
तालिबान, जिसके आतंक ने अफगानिस्तान को खून के आंसू रुलाए. जिसके आतंकियों ने दुनिया भर में दहशत फैलाई और जिसके खात्मे के लिए दुनिया के कई मुल्कों ने ताकत लगाई. जिस तालिबान के खिलाफ 20 सालों तक लंबी लड़ाई चली और जिसके खत्म हो जाने का दुनिया ने दावा किया था. अब वही तालिबान अपने पुराने आतंक और दहशत के साथ लौट आया है. इसकी वजह अमेरिकी और नाटो सैनिकों की घर वापसी अभियान है. 20 साल पहले साल 2001 में अमेरिकी सेना तालिबान को उखाड़ फेंकने के संकल्प के साथ अफगानिस्तान पहुंची थी और अब 20 साल बाद साल 2021 में अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से वापस लौट रही है, लेकिन पीछे तालिबान का वही पुराना ‘आतंक युग’ छोड़ती जा रही है.
क्या अफगानिस्तान में तालिबानी आतंक लौट रहा है?
अफगानिस्तान (Afghanistan) में इन दिनों गृहयुद्ध जैसे हालात हैं. अफगानिस्तान के अलग-अलग शहरों से हमलों की खौफनाक तस्वीरें सामने आ रही हैं और धीरे-धीरे अफगानिस्तान के शहर तेजी से तालिबान के कब्जे में आते जा रहे हैं. बीते करीब 3 हफ्ते में तालिबान की पकड़ यहां मज़बूत हुई है और 50% से ज्यादा इलाकों पर कब्जा तालिबान ने कब्जा कर लिया है. तालिबान ने कुल 398 जिलों में करीब 200 जिलों पर कब्जा कर लिया है, जबकि 130 जिलों में तालिबान-अफगानिस्तान की सेना में संघर्ष चल रहा है. ऐसे में सरकार के कब्जे में 70 से भी कम जिले बचे हैं और हालात ये है कि तालिबान तेजी से काबुल की तरफ बढ़ रहा है.
अमेरिकी सेना को क्यों देना पड़ा अफगानिस्तान का साथ?
अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही अब एक बार फिर से अफगानिस्तान (Afghanistan) की जनता वही पुराने आतंक को झेलने को मजबूर है, लेकिन इस पूरी कहानी को आपको समझना होगा कि आखिर अमेरिका को 20 साल पहले अफगानिस्तान का साथ क्यों देना पड़ा और अब 20 साल बाद क्यों अमेरिकी सेनाएं वापस लौट रही हैं? अमेरिका में 11 सिंतबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ, जिसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का ऐलान किया. हमले में अलकायदा का नाम आया था, जिसके ज्यादातर आतंकी उस वक्त अफगानिस्तान में थे जहां तालिबान का कब्जा था. अमेरिका ने लादेन समेत अलकायदा के आतंकियों को सौंपने की मांग की, जिसे तालिबान ने ठुकरा दिया. नतीजन अमेरिका की अगुवाई वाली नाटो गठबंधन सेनाओं ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया और मई 2003 तक चले संघर्ष के बाद अमेरिका ने मिलिट्री ऑपरेशन के खत्म होने और तालिबान के खात्मे का ऐलान किया.
20 साल बाद क्यों वापस लौट रही अमेरिकी सेना?
हालांकि 2003 के बाद भी अमेरिकी सेनाएं (American Army) अफगानिस्तान (Afghanistan) में ही डटी रहीं और तालिबान भी छोटी-मोटी वारदातों को अंजाम देता रहा, लेकिन अब 20 साल बाद अमेरिका की सेनाएं वापस लौट रही हैं. इस दौरान अमेरिका में सैनिकों की वापसी की मांग लगातार होती रही और इसके लिए सरकारें भी वादा करती रहीं. आखिरकार फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा समझौता हुआ, जिसके मुताबिक तालिबान हिंसा को बढ़ावा नहीं देने का साथ ही अफगान सरकार से शांति वार्ता को आगे बढ़ाएगा. अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाएगा. 1 मई 2021 तक अमेरिकी सेना को लौटना होगा, जिसे बाद में 11 सितंबर 2021 कर दिया गया. तालिबान विदेशी सैनिकों, ठेकेदारों और स्वयंसेवी संगठनों को निशाना नहीं बनाएगा. हालांकि इस समझौते में अफगान सरकार को शामिल नहीं किया गया था.
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी कितना बड़ा ख़तरा है?
अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान के खिलाफ जंग में अमेरिका और अन्य देशों ने पूरी ताकत तो झोंकी, लेकिन इसमें उसको बहुत नुकसान भी उठाना पड़ा. सबसे बड़ा नुकसान अमेरिका ने उठाया, जिसने इस जंग की अगुवाई की. आंकड़े बताते हैं कि इस युद्ध में कुल 2.41 लाख लोगों की मौत हुई, जिसमें 6384 अमेरिकी सैनिक, 1144 अन्य देशों के सैनिक और 78314 अफगानी सैनिक शहीद हुए. यही नहीं इस युद्ध मे करीब 10 लाख अमेरिकी सैनिक दिव्यांग भी हो गए. तालिबान के खिलाफ युद्ध में 71344 आम नागरिकों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी, जिसमें 8 हजार से अधिक बच्चे और करीब साढ़े 3 हजार महिलाएं शामिल हैं.
अमेरिका ने 20 सालों में झोंकी पूरी आर्थिक ताकत
तालिबान (Taliban) के खिलाफ जंग में अमेरिका ने 167 लाख करोड़ रुपये खर्च किए. इस खर्चे को आप इस तरह से भी समझ सकते हैं कि भारत के रक्षा बजट से 40 गुना अधिक अमेरिका ने आतंक के खिलाफ जंग में खर्च कर दिए. अपने सैनिकों की वापसी के साथ ही अमेरिका में लोग खुश हैं. ये अमेरिकियों की बहुत पुरानी मांग थी जो अब पूरी हो रही है, लेकिन अफसोस कि अफगानिस्तान के लोग अब एक बार फिर से वही जीवन जीने को मजबूर होंगे.
आखिर कब थमेगा अफगानिस्तान का ये आतंक
इस बीच तालिबान ने भरोसा दिया है कि वो अपनी जमीन का इस्तेमाल किसी देश को करने नहीं देगा. चाहे वो पड़ोसी देश हो या कोई और मुल्क. अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान के खिलाफ जंग अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी जंग थी, लेकिन सबसे कम नतीजे वाली भी जंग यही होगी किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी. 20 साल की जंग बेनतीजा खत्म हो गई और एक बार फिर से अफगानिस्तान में तालिबानी आतंक वाला युग लौटने लगा है. भारत का पड़ोसी देश अफगानिस्तान बार-बार मुश्किल में घिरता रहा है और अपने पड़ोसियों की टेंशन भी बढ़ाता रहता है.
पिछले 1 दशक में सबसे ज्यादा खबरों में रहा अफगानिस्तान
देश का पूरा नाम इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान है. अफगानिस्तान की आबादी 4 करोड़ है और इसका क्षेत्रफल 6 लाख 52 हजार 230 वर्ग किलोमीटर है. अफगानिस्तान (Afghanistan) में सरकार के प्रमुख अशरफ गनी हैं. गनी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हैं. वहीं देश में कई कबीलों का भी प्रभुत्व माना जाता है. अफगानिस्तान में पश्तून कबीले के लोग 42 प्रतिशत हैं तो वहीं ताजिक कबीले से जुड़े लोगों की आबादी 27 प्रतिशत है. अफगानिस्तान के लोग अफगान के नाम से जाने जाते है और अफगानिस्तान की मुद्रा को अफगानी कहा जाता है. बहुत से लोग अक्सर इन दो नामों के बीच परेशान हो जाते है. एक और दिलचस्प बात अफगानिस्तान से जुड़ी हुई है वो ये कि पिछले दशक में अफगानिस्तान किसी भी दूसरे देश की तुलना में सर्वाधिक खबरों में था.
अफगानिस्तान के 90% इलाके में मोबाइल फोन कवरेज (Mobile Phone Coverage in Afghanistan)है और यहां मोबाइल फोन प्रतिष्ठा का प्रतीक है. अफगानिस्तान में जैसे-जैसे तालिबान का कब्जा बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे पड़ोसी देशों में भी अशांति का खतरा भी बढ़ता जा रहा है. इस जंग की वजह से अफगानिस्तान में भारतीय हितों को भी बड़ी चोट पहुंची है. जहां भारत-अफगानिस्तान में शांति की कोशिशों में लगा है वहीं पाकिस्तान तालिबान के जरिए अशरफ गनी सरकार का तख्तापलट करने में जुटा है. इतना ही नहीं पर्दे के पीछे से चीन भी अफगान संकट पर नजरें गड़ाए है.
Bureau Report
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