कर्नाटक: कर्नाटक विधानसभा चुनावों की घोषणा से ऐन पहले कांग्रेस ने लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने की घोषणा की. इसे कांग्रेस का मास्टरस्ट्रोक कहा जा रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह समुदाय राज्य की 17 फीसद आबादी का प्रतिनिधित्व करता है और 224 सदस्यीय विधानसभा की 100 सीटों पर अपना प्रभाव रखता है. इस समुदाय को परंपरागत रूप से बीजेपी का वोटर माना जाता है और इस पार्टी के सीएम चेहरे बीएस येद्दियुरप्पा इसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. सियासी जानकारों के मुताबिक बीजेपी के इसी वोटबैंक को तोड़ने के लिए कांग्रेस ने यह कार्ड खेला है. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक कांग्रेस को उम्मीद है कि उसके इस फैसले से लिंगायतों का 10 प्रतिशत वोट उसके पक्ष में आ सकता है.
इसका असर भी देखने को मिल रहा है. बीजेपी इस मुद्दे पर दबाव में दिख रही है. पार्टी कह रही है कि कांग्रेस का यह फैसला राजनीति से प्रेरित है. बीजेपी ने साफ कर दिया है कि चुनावों के बाद वह इस मसले पर अपना रुख साफ करेगी. हालांकि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह लगातार लिंगायत समुदाय से जुड़े धार्मिक स्थलों और मठों पर जाकर आशीर्वाद ले रहे हैं. इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इन मंदिरों और मठों में माथा टेक रहे हैं. लेकिन बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में लिंगायत समुदाय इस बार बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस को वोट देगा?
तर्क
इस बारे में लिंगायत समुदाय के भीतर दो बड़े तर्क उभर रहे हैं. पहला- लोग कह रहे हैं कि सीएम सिद्दारमैया ने पिछले चार सालों में लिंगायतों के लिए कुछ खास नहीं किया. कुछ का तो यह भी कहना है कि उनकी सियासत लिंगायत विरोध की रही है और केवल पिछड़ी जाति के तबकों के लिए ही उन्होंने काम किया है. सिद्दारमैया खुद भी पिछड़ी कुरुबा जाति से ताल्लुक रखते हैं. हालांकि एक तबका यह भी कहता है कि कांग्रेस को इस कदम से कुछ लाभ मिलेगा और तकरीबन पांच फीसद लिंगायत वोट उसको इस बार मिल सकते हैं.
पेंच
लिंगायत समुदाय से ताल्लुक रखने वाले कई मठों ने कांग्रेस के इस कदम का समर्थन किया है तो कई ने विरोध भी किया है. विशेष रूप से लिंगायतों के उपसमूह वीरशैव लिंगायतों ने अल्पसंख्यक धार्मिक दर्जा देने का विरोध किया है. ये दरअसल लिंगायतों की तुलना में हिंदू परंपराओं को अधिक मानते हैं और इस वजह से लिंगायतों की तुलना में अधिक हिंदू कहलाते हैं. ये शिव के उपासक हैं. इस आधार पर भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस के इस दांव से इस समुदाय के वोटों में विभाजन होना तय है क्योंकि वीरशैव अलग अल्पसंख्यक दर्जा नहीं चाहते जबकि लिंगायत ऐसा चाहते हैं.
कौन हैं लिंगायत
बड़ा सवाल यह है कि अलग धर्म की मांग करने वाले लिंगायत आखिर कौन हैं? क्यों यह समुदाय राजनीतिक तौर पर इतनी अहमियत रखता है? दरअसल भक्ति काल के दौरान 12वीं सदी में समाज सुधारक बासवन्ना ने हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था. उन्होंने वेदों को खारिज कर दिया और मूर्तिपूजा की मुखालफत की. उन्होंने शिव के उपासकों को एकजुट कर वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की. आम मान्यता ये है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही होते हैं. लेकिन लिंगायत लोग ऐसा नहीं मानते. उनका मानना है कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक बासवन्ना के उदय से भी पहले से था. वीरशैव भगवान शिव की पूजा करते हैं. वैसे हिंदू धर्म की जिन बुराइयों के खिलाफ लिंगायत की स्थापना हुई थी आज वैसी ही बुराइयां खुद लिंगायत समुदाय में भी पनप गई हैं.
लिंगायत और सियासत
राजनीतिक विश्लेषक लिंगायत को एक जातीय पंथ मानते हैं, न कि एक धार्मिक पंथ. अच्छी खासी आबादी और आर्थिक रूप से ठीकठाक होने की वजह से कर्नाटक की राजनीति पर इनका प्रभावी असर है. अस्सी के दशक की शुरुआत में रामकृष्ण हेगड़े ने लिंगायत समाज का भरोसा जीता. हेगड़े की मृत्यु के बाद बीएस येदियुरप्पा लिंगायतों के नेता बने. 2013 में बीजेपी ने येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाया तो लिंगायत समाज ने भाजपा को वोट नहीं दिया. नतीजतन कांग्रेस फिर से सत्ता में लौट आई. अब बीजेपी फिर से लिंगायत समाज में गहरी पैठ रखने वाले येदियुरप्पा को सीएम कैंडिडेट के रूप में आगे रख रही है. अगर कांग्रेस लिंगायत समुदाय के वोट को तोड़ने में सफल होती है तो यह कहीं न कहीं बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित होगी.
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