नईदिल्लीः जम्मू कश्मीर में परिसीमन को लेकर इस वक्त की बड़ी खबर आ रही है. जम्मू कश्मीर में विधानसभा सीटों के परिसीमन को लेकर दिल्ली में चुनाव आयोग की अहम बैठक हो रही है. बैठक में मुख्य चुनाव आयुक्त समेत कई अधिकारी मौजूद हैं. परिसीमन पर बैठक में दोनों चुनाव आयुक्त भी मौजूद है.
बता दें कि 5 अगस्त को केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक 2019 को राज्यसभा में पास करवाया था इसके बाद अगले दिन 6 अगस्त को यह विधेयक लोकसभा में पारित हो गया था. केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 (3) के अंतर्गत प्रदत्त कानूनों को खत्म करते हुए जम्मू कश्मीर पुर्नगठन 2019 विधेयक को पेश किया. इस विधेयक के मुताबिक जम्मू कश्मीर को अब केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा होगा. लद्दाख बगैर विधानसभा के केंद्र शासित प्रदेश होगा.
आसान भाषा में आप ये समझ लीजिए कि अगर जम्मू-कश्मीर में परिसीमन हुआ तो राज्य के तीन क्षेत्रों… जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में विधानसभा सीटों की संख्या में बदलाव होगा. अगर परिसीमन हुआ तो जम्मू और कश्मीर के विधानसभा क्षेत्रों का नक्शा पूरी तरह बदल जाएगा. जम्मू और कश्मीर की राजनीति में आज तक कश्मीर का ही पलड़ा भारी रहा है, क्योंकि विधानसभा में कश्मीर की विधानसभा सीटें, जम्मू के मुकाबले ज्यादा हैं. अगर परिसीमन होता है और जम्मू की विधानसभा सीटें बढ़ती है, तो अलगाववादी मानसिकता के नेताओँ की स्थिति कमज़ोर होगी और राष्ट्रवादी शक्तियां मजबूत होंगी.
किसी राज्य के निर्वाचन क्षेत्र की सीमा का निर्धारण करने की प्रक्रिया. संविधान में हर 10 वर्ष में परिसीमन करने का प्रावधान है. लेकिन सरकारें ज़रूरत के हिसाब से परिसीमन करती हैं. जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में कुल 87 सीटों पर चुनाव होता है. 87 सीटों में से कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं. परिसीमन में सीटों में बदलाव में आबादी और वोटरों की संख्या का भी ध्यान रखा जाता है.
ऐसा माना जा रहा है कि अगर परिसीमन किया जाता है तो जम्मू की सीटें बढ़ जाएंगी और कश्मीर की सीटें कम हो जाएंगी, क्योंकि 2002 के विधानसभा चुनाव में जम्मू के मतदाताओं की संख्या कश्मीर के मतदाताओं की संख्या से करीब 2 लाख ज्यादा थी. जम्मू 31 लाख रजिस्टर्ड वोटर थे. कश्मीर और लद्दाख को मिलाकर सिर्फ 29 लाख वोटर थे.
कश्मीर के हिस्से में ज्यादा विधानसभा सीटें क्यों हैं? ये समझने के लिए आपको जम्मू और कश्मीर के इतिहास को समझना होगा. वर्ष 1947 में जम्मू और कश्मीर की रियासत का भारत में विलय हुआ. तब जम्मू और कश्मीर में महाराज हरि सिंह का शासन था. वर्ष 1947 तक शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के सार्वमान्य नेता के तौर पर लोकप्रिय हो चुके थे.
जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह, शेख अब्दुल्ला को पसंद नहीं करते थे. लेकिन शेख अब्दुल्ला को पंडित नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त था. पंडित नेहरू की सलाह पर ही महाराजा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. वर्ष 1948 में शेख अब्दुल्ला के प्रधानमंत्री नियुक्त होने के बाद महाराजा हरि सिंह की शक्तियां तकरीबन खत्म हो गई थीं.
इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने राज्य में अपनी मनमानी शुरू कर दी. वर्ष 1951 में जब जम्मू कश्मीर के विधानसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई. तब शेख अब्दुल्ला ने जम्मू को 30 विधानसभा सीटें, कश्मीर को 43 विधानसभा सीटें और लद्दाख को 2 विधानसभा सीटें आवंटित कर दीं.
वर्ष 1995 तक जम्मू और कश्मीर में यही स्थिति रही. वर्ष 1993 में जम्मू और कश्मीर में परिसीमन के लिए एक आयोग बनाया गया था. 1995 में परिसीमन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया. पहले जम्मू कश्मीर की विधानसभा में कुल 75 सीटें थीं. लेकिन परिसीमन के बाद जम्मू कश्मीर की विधानसभा में 12 सीटें बढ़ा दी गईं. अब विधानसभा में कुल 87 सीटें थीं. इनमें से कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं. इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी जम्मू और लद्दाख से हुए इस अन्याय को ख़त्म करने की कोशिश नहीं हुई.
यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में हमेशा नेशनल कॉन्फ्रेंस और PDP जैसी कश्मीर केंद्रित पार्टियों का वर्चस्व रहता था. ये पार्टियां, संविधान के अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 A को हटाने का विरोध करती थी. यही वजह है कि कश्मीर से अलगाववादी मानसिकता खत्म नहीं हो रही थी.
Bureau Report
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