सुप्रीम कोर्ट के फैसले का ‘आधार’ की अनिवार्यता पर प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को सुनवाई के बाद इस मामले में विस्तृत फैसला आएगा, जिसमें कुछ जज अपनी अलग राय या असहमति भी व्यक्त कर सकते हैं. प्राइवेसी पर फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य बेंच इस बात पर सुनवाई करेगी कि ‘आधार’ को मनी बिल के तौर पर पारित किया जाना कितना सही था, और क्या इसे अनिवार्य बनाया जा सकता है? ‘आधार’ ठोस हकीकत है जिससे देश में 90 फीसदी से अधिक आबादी जुड़ गई है. सुप्रीम कोर्ट क्या ‘आधार’ की हकीकत को अपने फैसले से बदल सकेगा, यह देखना दिलचस्प होगा.
‘आधार’ को अनिवार्य बनाने पर प्राइवेसी पर बहस कैसे शुरु हुई
सरकार द्वारा सभी नागरिकों को 12 अंकों का ‘आधार’ नम्बर दिया जा रहा है जिसके तहत लोगों की निजी सूचनाओं के साथ बायोमैट्रिक्स यानि चेहरे का विवरण, अंगुलियों के निशान और आंखों की पुतली के निशान का डेटा-बेस बनाया जा रहा है. ‘आधार’ की अनिवार्यता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, जहां साल 2015 में मामले की सुनवाई के लिए संविधान पीठ गठित करने का निर्देश दिया गया.
नौ जजों की संविधान पीठ द्वारा प्राइवेसी पर सुनवाई
‘आधार’ के लिए पहले 3 जज और बाद में 5 जजों की बेंच का गठन हुआ. साल 1954 में एम.पी.शर्मा मामले में 8 जजों की बेंच ने फैसला दिया था, इसलिए वर्तमान मामले की सुनवाई के लिए 9 जजों की बड़ी बेंच का गठन किया गया.
प्राइवेसी के बारे में संविधान में प्रावधान
संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 21 में लोगों के जीवन की स्वतंत्रता का प्रावधान किया गया है. संविधान में गण यानी जनता सर्वोच्च है इसलिए भारत को गणतंत्र कहा जाता है. सुप्रीम कोर्ट में बहस में यह कहा गया कि बगैर प्राइवेसी के स्वतंत्रता नहीं हो सकती, इसलिए प्राइवेसी संविधान के भाग-3 के तहत मूल अधिकार है.
प्राइवेसी के मूल अधिकार होने का विशेष महत्व
संविधान के भाग-3 में देश की जनता के लिए समानता, स्वतंत्रता समेत अनेक मूल अधिकारों का प्रावधान किया गया है. प्राइवेसी को भी यदि मूल अधिकार मान लिया गया तो अनुच्छेद-32 या 226 के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में रिट फाइल करके लोग प्राइवेसी की सुरक्षा की मांग कर सकते हैं.
कॉमन लॉ के तहत प्राइवेसी का अधिकार
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह माना है कि कॉमन लॉ के तहत जनता को प्राइवेसी का कानूनी अधिकार है. केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने 2016 में राज्यसभा में ‘आधार’ पर बहस के दौरान प्राइवेसी के अधिकार को माना था.
भारत में वर्तमान कानूनों के तहत प्राइवेसी का अधिकार
भारत में आरटीआई कानून के तहत लोगों की निजी जानकारी तीसरे व्यक्ति को नहीं दी जा सकती है. आईपीसी कानून के तहत अन्य व्यक्तियों के निजी जीवन में तांक-झांक करना कानूनी अपराध है. जनता के टेलीफोन टेप करने और घरों में छापा मारने के लिए कानून के तहत अनुमति लेनी पड़ती है.
आई.टी.एक्ट में प्राइवेसी को मान्यता
भारत में सूचना प्रौद्योगिकी कानून (आई.टी.एक्ट) के तहत इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स (आई.एस.पी.) के प्राइवेसी पॉलिसी और धारा 43, 43-ए, 72-ए के तहत डेटा सुरक्षा हेतु कानून हैं. डेटा सुरक्षा के लिए आई.टी.एक्ट के तहत 2011 में विस्तृत नियम बनाए गए हैं.
प्रधानमंत्री ने डेटा सुरक्षा पर कानून बनाने के लिए निर्देश दिया
पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री मोदी ने गृहमंत्री, विधिमंत्री, सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री, यू.आई.डी. और सुरक्षा एजेंसियों की उच्च स्तरीय बैठक में डेटा सुरक्षा पर विस्तृत कानून का मसौदा बनाने का निर्देश दिया. इसे कैबिनेट से मंजूरी के बाद संसद में पारित कराना होगा. इस कानून के पारित होने से मोबाइल और इंटरनेट यूजर्स के डेटा सुरक्षा के साथ प्राइवेसी की सुरक्षा भी सम्भव हो सकेगी.
संसद पारित करेगी प्राइवेसी कानून
योजना आयोग जिसे अब नीति आयोग कहा जाता है, ने पूर्व जज ए.पी.शाह की अध्यक्षता में प्राइवेसी कानून के लिए विशेषज्ञ समूह गठित किया गया था. इसने साल 2012 में अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी. सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में प्राइवेसी के अधिकार को मान्यता दी, जिसके अनुसार विधि आयोग ने प्राइवेसी पर विस्तृत कानून बनाने की सिफारिश की है. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय चाहे जो भी हो लेकिन इस विवाद से उपजी जनजागृति के बाद संसद को प्राइवेसी कानून पर विचार करके डिजिटल इंडिया में जनता के हितों को सुरक्षित करना ही होगा.
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