पटना: बिहार की राजनीति में एक फोन कॉल सुर्खियों का सबब बन गई है. यह फोन कॉल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सुप्रीमो लालू यादव के स्वास्थ्य का हालचाल जानने के लिए मंगलवार को फोन किया. इस बात की पुष्टि बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के ट्वीट से हुई. फोन कॉल के बाद कयासों का बाजार गर्म हो गया है. बीजेपी और जेडीयू में जारी खींचतान के बीच चर्चा होने लगी है कि क्या नीतीश कुमार फिर से आरजेडी के साथ जाएंगे? या फिर पीएम मोदी और बीजेपी के साथ उनकी दोस्ती बनी रहेगी?
नीतीश कुमार के फोन कॉल से किसी राय पर पहुंचने से पहले यह जानना जरूरी है कि बिहार की राजनीति के केंद्र बिंदु बन चुके नीतीश कुमार, लालू यादव, रामविलास पासवान और सुशील मोदी के बीच सियासत और निजी रिश्ते भी हैं. इन सभी राजनेताओं ने साथ ही राजनीतिक जीवन की शुरुआत की. धुर विरोधी होने के बावजूद इनके बीच शिष्टाचार भेंट-मुलाकात और बातचीत चलती रहती है. मसलन बीते 12 मई को लालू यादव के बड़े बेटे तेजप्रताप की शादी में नीतीश कुमार और रामविलास पासवान आशीर्वाद देने पहुंचे थे. सुशील मोदी के बेटे की शादी में भी लालू यादव वर-वधू को आशीर्वाद देने पहुंचे थे.
बिहार की सियासी धुरी
90 के दशक से बिहार की राजनीति में तीन ताकतें हमेशा से रही हैं. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू). तीन में से जो दो साथ आए हैं, उनकी सरकार बनी है. अगर हम बात 2005 और 2010 विधानसभा चुनाव की करें तो बीजेपी और जेडीयू ने मिलकर चुनाव लड़ा और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. दोनों ही चुनाव में जेडीयू सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. 2010 के गठबंधन में तो एनडीए को 243 में से 206 सीट जीतने में सफलता मिली थी.
2015 में हुए विधानसभा चुनाव में भी यही समीकरण फिट बैठा था. बीजेपी को रोकने के लिए महागठबंधन का गठन हुआ. नाम भले ही इसका महागठबंधन रखा गया हो लेकिन इसमें प्रमुख दो ही दल थे. आरजेडी और जेडीयू. दोनों के कुल 151 विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. ऐसे में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को नजरअंदाज करना बीजेपी के लिए भी आसान नहीं होगा.
‘डबल इंजन’ का नहीं मिल रहा फायदा!
बिहार में महागठबंधन की सरकार के बने हुए एक वर्ष ही हुए थे कि नीतीश कुमार ने अपना रास्ता अलग कर लिया और बीजेपी के साथ सरकार का गठन किए. जिस बैठक में महागठबंधन से अलग होने का फैसला लिया गया, उसमें अधिकांश जेडीयू विधायकों ने एक स्वर में पार्टी की छवि खराब होने की बात कही थी. इसके अलावा दोनों ही पार्टियों के समर्थकों में भी खुशी की लहर थी. चर्चा होने लगी थी कि ‘डबल इंजन’ (केंद्र और राज्य) वाली सरकार का फायदा बिहार को मिलेगा.
हालांकि अब जेडीयू के सूत्र कहते हैं कि बिहार में एनडीए की सरकार को बने एक वर्ष होने जा रहे हैं, लेकिन ‘डबल इंजन’ का फायदा देखने को नहीं मिल रहा है. अधिकांश केंद्रीय परियोजनाएं लटकी हुई हैं. बिहार के लिए घोषित विशेष पैकेज को लेकर भी केंद्र की तरफ से दरियादिली नहीं दिख रही है. नीतीश कुमार के करीबी नेताओं का मानना है कि देश की राजनीति में नीतीश कुमार की छवि विकास पुरुष के रूप में जानी जाती है. इस कारण केंद्र के इस रवैये से उनकी छवि पर असर पड़ सकता है.
सीट शेयरिंग पर BJP को करनी होगी पहल
बिहार में बीजेपी लगातार चेहरा को लेकर संघर्ष करती नजर आई है. आज भी बीजेपी के पास बिहार में नीतीश की तुलना में कोई ऐसा सर्वमान्य चेहरा नहीं है. जेडीयू नेता लगातार बिहार में नीतीश कुमार को चेहरा बता रहे हैं. वहीं, बीजेपी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कहती है. अगर मौजूदा सरकार की बात करें तो जेडीयू सबसे बड़ी पार्टी है. जेडीयू के 71 और बीजेपी के 53 विधायक हैं. ऐसे में गठबंधन पर फंसे पेंच को सुलझाने के लिए बीजेपी को पहल करनी होगी.
BJP के केंद्रीय नेतृत्व ने बयानवीरों पर लगा रखा है लगाम!
बीजेपी की नजर भी बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर है. 2019 लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक सीट लाने के लिए जेडीयू का अलग होना नुकसानदेह साबित हो सकता है. शायद बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी इसको लेकर सजग है. यही वजह है कि अपने बयानों को लेकर सदैव सुर्खियों में रहने वाले गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे सरीखे नेता गठबंधन और नीतीश कुमार को लेकर कोई बयान नहीं दे रहे हैं. नीतीश कुमार भी बीजेपी को आंख तो दिखाते हैं, लेकिन आरजेडी और कांग्रेस पर भी हमला करने से नहीं चूकते.
Bureau Report
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