पटना: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर 23 जून यानी कल पटना में विपक्षी दलों का जमावड़ा लगने जा रहा है। इसके लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई बड़े नेता आज पटना पहुंचेंगे।
महाबैठक से पहले तरह-तरह के कयास भी लगाए जा रहे हैं। कुछ राजनीति विशेषज्ञ इस बैठक को सफल बता रहे हैं तो कुछ इसे कभी न रंग लाने वाली कोशिश करार दे रहे हैं। पढ़िए, महाबैठक में किन-किन मुद्दों पर होगी चर्चा, क्या क्षेत्रीय दल अपनी विचारधारा से उठकर नीतीश के फॉर्मूले पर काम करेंगे या फिर सीटों के बंटवारे पर ही दम तोड़ देगी नीतीश की कोशिश…
महाबैठक के सफल होने की कितनी उम्मीद है? इसके जवाब में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज पटना के पूर्व निदेशक डॉ. डीएम दिवाकर बताते हैं कि सभी विपक्षी दल एक साथ बैठने को तैयार हो गए हैं, यही बड़ी बात है और यह पहली सफलता भी है। जब साथ बैठेंगे और बात करेंगे, तभी तो बात बनेगी।
लोकसभा चुनाव के लिए अगर विपक्षी दलों का गठबंधन हो भी गया तो क्या सीटों के बंटवारे को लेकर सहमति बन पाएगी, अभी जेडीयू 16 लोकसभा सीटों पर है तो क्या वो इससे कम सीटों के लिए राजी होगा?
इस पर डॉ. डीएम दिवाकर कहते हैं, ”मुझे लगता है कि सीटों को लेकर विपक्षी दलों के बीच समझदारी बन चुकी है, तभी वे लोग एकसाथ बैठने के लिए राजी हुए हैं। नीतीश का फार्मूला- जो जहां मजबूत है, वो वहां से लड़ेगा, इसलिए सीटों का बंटवारा समस्या बनेगा, ऐसा फिलहाल नहीं लगता है।”
हाल में नीतीश के किन फैसलों का हुआ विरोध?
1. जाति आधारित गणना से अगड़ा वोट बैंक हुआ नाराज : नीतीश सरकार 500 करोड़ रुपये खर्च करके राज्य में जाति आधारित गणना करा रही थी, जिस पर पटना हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। इस फैसले को बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी, लेकिन वहां सरकार की फजीहत हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
हाईकोर्ट के मुताबिक, सरकार जिस तरह जाति सर्वे करवा रही है, वह जाति जनगणना है और इसे कराने का अधिकार केवल केंद्र के पास ही है।
जातीय गणना से जहां नीतीश सरकार कोर्ट में घिरी, वहीं जदयू का अगड़ा वोट बैंक भी नाराज हो गया। अगड़ी जातियों में मैसेज पहुंचा कि सरकार जाति गणना के बाद पिछड़ों-अति पिछड़ों की संख्या बढ़ने पर आरक्षण का दायरा बढ़ा सकती है। यानी कि सवर्णों ने माना कि जाति गणना से उनको बड़ा नुकसान होगा।
2. आनंद मोहन की रिहाई से दलित नाराज: तत्कालीन डीएम जी. कृष्णैया हत्याकांड में उम्रकैद की सजा काट रहे बाहुबली नेता और पूर्व सांसद आनंद मोहन की रिहाई के लिए नीतीश सरकार ने जेल मैनुअल के नियम में बदलाव किया। 23 अप्रैल को आनंद मोहन रिहा होकर जेल से बाहर आ गए। कृष्णैया की पत्नी उमा कृष्णैया ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
आनंद मोहन की रिहाई से बिहार के दलितों के बीच नीतीश सरकार के बारे में गलत मैसेज गया। उमा कृष्णैया ने भी आरोप लगाया कि राजपूतों के वोट के लिए सरकार ने उनके पति के हत्यारे को रिहा कर दिया।
3. नई शिक्षा नियमावली से शिक्षकों में रोष: नीतीश सरकार ने इस साल नई शिक्षा नियमावली को मंजूरी दी है। इसके तहत सरकार ने नियोजित शिक्षकों को सालों से प्रमोशन, ट्रांसफर और राज्यकर्मी का दर्जा दिए बिना शिक्षक बहाली के लिए 1.70 लाख पदों पर भर्ती निकाली है।
इससे करीब साढ़े तीन लाख नियोजित शिक्षक और सातवें चरण के नियोजन का इंतजार कर रहे तीन लाख अभ्यर्थियों में खासी नाराजगी है। शिक्षकों ने इसके विरोध में धरना-प्रदर्शन भी किए।
शिक्षक संघ ने आरोप लगाया कि महागठबंधन ने चुनाव से पहले जो वादा किया था, उसे नहीं निभाया। कहा जा रहा है कि इससे जदयू और राजद के करीब 50 लाख वोट बैंक पर असर पड़ सकता है।
4. धीरेंद्र शास्त्री के विरोध से बहुसंख्यक हिंदू रूठे: बागेश्वर धाम के आचार्य पंडित धीरेंद्र शास्त्री पटना आए तो राजद ने उनका खुला विरोध किया। पोस्टर फाड़े गए और कालिख पोती गई। नीतीश के मंत्री तेजप्रताप ने धीरेंद्र शास्त्री को डरपोक और देशद्रोही करार दिया। इसके उलट भाजपा धीरेंद्र शास्त्री की हनुमंत कथा में हर जगह नजर आई, जिसे देखकर अनुमान लगाया गया कि धीरेंद्र शास्त्री के फॉलोअर्स भाजपा का समर्थन करेंगे।
भाजपा में चेहरा है बड़ा मुद्दा
बिहार में भाजपा के चेहरे का मुद्दा काफी बड़ा है। इस पर राजनीति के विशेषज्ञ डॉ. डीएम दिवाकर कहते हैं कि ये मुद्दे बेशक कुछ वक्त के लिए भाजपा के पक्ष में हवा बना सकते हैं, लेकिन स्थायी (पर्मानेंट) नहीं हैं। बिहार में भाजपा कमजोर है।
बिहार में जब-जब भाजपा अकेली चुनाव लड़ी है तो अपने वजूद तक को नहीं बचा पाई है। यह बात भाजपा अच्छे से जानती है। भाजपा के पास अभी तक मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं है। कभी गिरिराज सिंह, सुशील मोदी, सम्राट चौधरी तो कभी नित्यानंद राय तक को ले आते हैं। ऐसे में बिहार में चेहरे के सवाल का हल ढूंढना निकालना भाजपा के लिए भी जरूरी है।
धर्म का समीकरण भाजपा के साथ
डॉ. दिवाकर कहते हैं, ‘इस बात से कोई नकार नहीं सकता है कि बिहार में अभी भी राजद का अच्छा खासा वोट बैंक है। राजद और जदयू के गठबंधन के बाद ये सारे वोट एकजुट हो गए।’ विकास पर तो वोट होते नहीं हैं। वरना राजनीति का स्वरूप कुछ और ही होता। बिहार में अगर जाति का समीकरण देखा जाए तो वह महागठबंधन के पक्ष में है, जबकि धर्म का समीकरण भाजपा के पक्ष में है। हालांकि, यह भी सच है कि धर्म जातियों को एकजुट नहीं कर पाएगा।
क्या उपेंद्र कुशवाहा और मांझी करेंगे भाजपा को मजबूत?
राजनीति विशेषज्ञ के मुताबिक, अगर भाजपा को उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी दोनों का साथ मिल गया तो चिराग पासवान का साथ छूटना भी तय लग रहा है। रामविलास पासवान के निधन के बाद भाजपा ने चिराग पासवान का सिर्फ नुकसान किया है, उन्हें कोई फायदा नहीं पहुंचाया है। इस कारण चिराग खुद को ठगा सा महसूस करते हैं।
एक वक्त था, जब लोजपा को कोई अनदेखा नहीं कर सकता था, लेकिन अब वैसा नहीं रहा। इसलिए ये लोग भाजपा को वो लाभ पहुंचा पाएंगे, जितना रामविलास पासवान के वक्त लोजपा से मिलता था, यह मुश्किल लगता है।
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