जब मैं अपने कला के सफर को पीछे मुड़कर देखती हूं तो बहुत सौभाग्यशाली महसूस करती हूं कि एक अभिनेत्री और निर्देशक के रूप में मुझे भारत की साहित्यिक समृद्धि का जश्न मनाने के कई अवसर मिले। अपने करियर के शुरुआती वर्षों में दिल्ली स्थित थिएटर समूह ‘संभव’ ने मुझे समाज को आईना दिखाने वाली कई बेहतरीन कहानियों का हिस्सा बनने का अवसर प्रदान किया।
मैं कहूंगी कि थिएटर ने हिंदी साहित्य को जीवित रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई क्लासिक नाटक वास्तव में मुंशी प्रेमचंद, भीष्म साहनी और जयशंकर प्रसाद जैसे हिंदी साहित्यकारों की कृतियों से प्रेरित हैं। थिएटर ने साहित्य को एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचाने में भी बड़ी भूमिका निभाई है।
जब मुझे साहित्यिक संकलन ‘कोई बात चले’ का निर्देशन करने का अवसर मिला तो मैंने भी इस उम्मीद के साथ सआदत हसन मंटो, मुंशी प्रेमचंद और हरिशंकर परसाई की कालजयी कहानियों को चुना कि ये कहानियां युवाओं के बीच उनकी साहित्यिक इतिहास को फिर से जानने की इच्छा पैदा करेंगी।
एक अभिनेत्री के रूप में भी, चाहे वह मंच हो या स्क्रीन, मुझे महान लेखकों द्वारा लिखे गए किरदारों को निभाने का अवसर मिला है। यहां तक कि भारत के पहले टेलीविजन सोप ओपेरा ‘हम लोग’, जिसमें मैंने अभिनय किया था, उसे साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखक मनोहर श्याम जोशी ने लिखा था। मेरा किरदार ‘बड़की’ हर उस भारतीय लड़की का प्रतीक बन गया, जिसे रंगभेद के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा। इस शो की सफलता ने यह साबित किया कि भाषा एक शक्तिशाली सामाजिक टिप्पणी का माध्यम हो सकती है।
मैं ‘साग मीट’ नाटक को लेकर भी बेहद गर्व महसूस करती हूँ, जिसे मेरे पसंदीदा लेखकों में से एक, भीष्म साहनी ने लिखा था। इस नाटक के 100 से अधिक शो करना मेरे लिए एक बेहद संतोषजनक रचनात्मक अनुभव था। अगर मैं अपने पसंदीदा कहानीकारों की बात करूं तो राजिंदर सिंह बेदी एक और दिग्गज हैं, जिनके काम ने कई फिल्मों और थिएटर प्रस्तुतियों को प्रेरित किया है। इस्मत चुगताई और मंटो की उर्दू कृतियों को भी कई बार नाटकों और फिल्मों में रूपांतरित किया गया है।
जहां तक ‘टोबा टेक सिंह’, ‘हतक’, ‘ईदगाह’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘मम्मद भाई’ और ‘एक फिल्म कथा’ जैसी कहानियों की बात है तो मुझे बेहद खुशी है कि इन्हें उस समय संजोकर रखा गया जब हम अपने ही साहित्यिक धरोहर से दूर होते जा रहे हैं। लोग थिएटर देखने के लिए बहुत कम आते हैं और टेलीप्ले नई पीढ़ी और आम जनता को, बिना बाहर गए, अपने घर पर ही भारतीय साहित्य की सुंदरता को जानने में मदद कर रहा हैं।
महामारी ने निश्चित रूप से हमारे व्यक्तिगत और रचनात्मक जीवन को बदल दिया और थिएटर कलाकारों के लिए अपने काम को घर बैठे दर्शकों तक पहुंचाना बेहद चुनौतीपूर्ण बना दिया। यहां तक कि महामारी के बाद भी लोग टिकट खरीदकर थिएटर या फिल्म देखने जाने के लिए कम समय निकाल पा रहे हैं। यही कारण है कि अब हमें छोटे पर्दे की ज़रूरत है, ताकि अच्छे कंटेंट को एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचाया जा सके। मैं इस बात की भी सराहना करती हूं कि कैसे विभिन्न भाषाओं में नाटकों के अनुवाद और रूपांतरण दर्शकों को भारत की विविध संस्कृतियों से फिर से जोड़ रहे हैं और उन्हें हमारे मूल मूल्यों और भावनाओं की वैश्विकता को समझने में मदद कर रहे हैं। ‘टोबा टेक सिंह’ जैसी कहानी कन्नड़ या तेलुगू में अनुवादित होने पर भी विस्थापन की त्रासदी और लाखों लोगों की मनोवृत्ति पर विभाजन के प्रभाव की याद दिलाती रहेगी। मंटो की ‘हतक’ महिलाओं के अमानवीयकरण और उनकी अखंडता के बारे में है। यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी जब इसे पहली बार लिखा गया था। हरिशंकर परसाई की ‘एक फिल्म कथा’ जनप्रिय सिनेमा पर एक व्यंग्य है, और किसी भी भाषा में इसका हास्य और विडंबना दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करेगी।
मुझे लगता है कि हर किसी ने किसी न किसी समय प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ के बारे में पढ़ा या सुना है। इस कहानी की ताकत उसकी सादगी में है और इसमें सहानुभूति, उदारता और दयालुता की शक्ति का चित्रण है। मुझे लगता है कि थिएटर को छोटे शहरों और दूर-दराज के इलाकों तक ले जाना चाहिए। हमें साहित्य को बड़े और छोटे पर्दे पर ही नहीं बल्कि मंच पर भी जीवंत करना चाहिए। यह समझने के लिए कि हम कौन हैं और दुनिया में हमारी जगह क्या है, हमें अपने मूल, अपनी कहानियों और अपनी उत्पत्ति को जानना जरूरी है।
Bureau Report
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