विशाल/सूर्यकांत: मालवा में गुस्से में हैं धरतीपुत्र जीं हां, धरतीपुत्र किसानों को आम तौर पर गुस्सा नहीं आता। वो व्यथित हो सकता है लेकिन नुकसान नहीं कर सकता क्योंकि नुकसान क्या क़हर बरपा सकता है ये भारत का किसान अच्छे से जानता हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी इस दर्द को महसूस करते हुए वो बड़ा होता है और इसीलिए धैर्य की प्रतिमूर्ति भी कहलाता है। लेकिन अफसोस ये हैं कि हम आजादी के इतने सालों बाद भी किसानों के दर्द के लिए हमदर्द नहीं बन सके हैं।
अपने काम में मशगुल किसान जितना आशावादी होता है, वो आशावाद की पराकाष्ठा से कम नहीं क्योंकि जो बोया जा रहा है, वो खिलेगा या नहीं, जो खेतों में लहलहा रहा है वो बचेगा या नहीं, किसान को कुछ पता नहीं होता। उसे या तो अपनी मेहनत पर यकीन है या फिर उपर वाले पर लेकिन लोकतंत्र के आइने में इस बात को देखें तो ऊपर वाले का मतलब ईश्वरीय व्यवस्था से नीचे भी एक व्यवस्था यानि सरकारों का होना है आती-जाती सरकारों में घोषणाओं का अंबार है बजट देने के वायदों की भरमार हैं खुद को किसान हितैषी बताने में कोई पीछे नहीं लेकिन ये कोई नहीं समझना चाहता कि क्यों अब तक करोड़ों किसान खेती से दूर चले जा चुके हैं।
देश की हकीक़त को कुछ यूं समझिए कि 1995 से लेकर अब तक साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ये आंकडा 2013 तक का है, इससे आगे पड़ताल करेंगें तो स्थिति बेहद विकट नज़र आएगी.। सवाल ये हैं कि अगर वाकई सरकारों ने कुछ किया है तो क्या वजह हैं कि किसान के सब्र का बांध टूट रहा है। जब ज्यादा शोर मचा तो स्वामीनाथन कमेटी बनाई गई…फिर चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में हुड्डा कमेटी बनाई गई…कई सिफारिशें आई लेकिन किसानों की समस्या का कोई हल नहीं हुआ…कभी पानी,कभी बिजली, कभी जमीन अधिग्रहण का दंश तो कभी लागत और मूल्य में बढ़ती खाई…इसी खाई में पिछले कई दिनों से फँसा है पश्चिमी मध्यप्रदेश.।
मालवा की पठारी जमीन, लहलहाती फसलों के नज़ारे देखने हों तो यहां से खूबसूरती,आस-पास कहीं और नहीं दिखती.। किसान की खेती लहलहाती है तो शायरों के लब से….शबे-मालवा की खूबसूरती के कलाम भी निकलते है…लेकिन अब मालवा के पठार के आसमान में, जलती गाड़ियों के धुंए के ग़ुबार है और नीचे ज़मीन पर गोलीकांड में मारे गए 6 किसानों की लाशें देखकर गुस्से में तमतमाए किसानों के चेहरे लाल हैं। प्रशासन के इक़बाल का आलम ये हैं कि कलेक्टर भी धकियाये जा चुके हैं…मालवा का पठार, गुस्से के गुबार में बदल चुका है.। फिर लोकतंत्र में सियासी जमीन की खोज मामले को जल्द ठंडा कहां होने देती है?
लेकिन किसानों का मुद्दा कुछ यूं समझिए कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 1995 से 2013 के दौरान 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। इसी दौरान जो तथ्य सामने आया इसी से पता लग सकता था कि मध्यप्रदेश के किसानों पर क्या गुजर रही थी। आंकडों के मुताबिक तीन लाख में से आत्महत्या करने वाले 28 हजार किसान मध्यप्रदेश के थे। खेत-खलिहान और किसान के नाम पर राजनीति हर दल करता है, क्योंकि इसके बिना भारतीय लोकतंत्र में टिकना तो छोड़िए, सियासी वजूद तक महफूज नहीं रहता। सत्ता में आते ही किसानों के लिए लुभावनी घोषणाएं झुनझुना बन जाती हैं और खेतों में खड़ा किसान अकेले अपनी किस्मत से संघर्ष करता रहता है।
भारत में जीडीपी में ग्रोथ में गिरावट के बीच अकेला कृषि सेक्टर था, जिसने अर्थव्यवस्था को संबल दिया। ये संबल धरतीपुत्रों की बदौलत नहीं तो था तो क्या आते-जाते वित्त मंत्रियों की बदौलत था? भारत के किसान और भारत की खेती को नए सिरे से क्यों नहीं देखा जाता? औद्योगिकीकरण और कृषि के बीच टकराव की स्थिति को कमतर करते हुए खेती को ही सर्वश्रेष्ठ उद्योग बनाने पर क्यों काम नहीं होता?
एक आंकडा देख लीजिए कि 1950-51 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 53.1 प्रतिशत थी जो वर्ष 2016 तक 18 फीसदी रह गई जबकि देश की आबादी का 50 फीसदी कार्यबल खेती पर ही निर्भर है। ये मैं नहीं बल्कि देश के कृषि राज्य मंत्री का बयान हैं। खेती-किसानी से जुड़ने और उससे आमदनी का संतुलन कुछ यूं समझिए कि साल 1960 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 111 रुपए था और एक क्विण्टल गेहूँ का दाम 41 रुपए था। आज 10 ग्राम सोने का मूल्य लगभग 30,000 रुपए के भी पार है और एक क्विण्टल गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य करीब 1,600 रुपए है।
इसी तरह 1960 में ग्रेड वन अफसर के एक महीने के वेतन में छह क्विंटल गेंहूं मिलता था आज ग्रेड वन अफसर की एक महीने के वेतन में 25 क्विंटल गेंहू खरीदा जा सकता है। किसानों से पूछिए तो कहते हैं कि जिन्होनें कभी हल नहीं पकड़ा वो देश की कृषि नीतियां बनाते हैं। विदेशों से तकनीक लाने के नाम पर ग्रीन हाउस और कल्चर सेंटर काफी बन गए लेकिन देश की जमीन पर ये प्रोजेक्ट कितने कारगर हुए ये जानने की कोशिशें कम ही हुई है।
मध्यप्रदेश में जो हुआ वो कभी राजस्थान के रावला-घड़साना में हुआ था,पंजाब और हरियाणा में पानी मांगते किसानों ने भी आंदोलन की राह पकडी थी, तो भट्टा पारसौल,नंदीग्राम और सिंगूर में अधिग्रहण की आग में किसान आंदोलन हुए। तमिलनाडू के किसानों का प्रदर्शन दिल्ली में सबने देखा ही है। किसानों की स्थिति और कृषि सुधार के क्षेत्र में इजरायल जैसे मूल्क ने प्रोग्रेसिव एप्रोच रखी है और हम आजादी के इतने सालों बाद भी किसानों की बुनियादी समस्याओं का निदान नहीं कर पाएं है। मंदसौर में जो हो रहा है वो कानून-व्यवस्था का मसला बन गया है, यकीकन ये स्थिति अस्थाई है। आज नहीं तो कल स्थिति काबू में आ ही जाएगी लेकिन किसानों की समस्याओं का मुद्दा स्थाई भाव के साथ देश में पसर गया है।
किसानों के हक़ और हक़ूक से जुड़े कुछ ज्वलंत सवाल हैं, मसलन –
क्या मध्यप्रदेश जैसे उग्र आंदोलन रोके नहीं जा सकते थे?
क्या किसानों के सामने आंदोलन के सिवाय कोई रास्ता नहीं बच रहा?
क्या कर्ज़ माफी जैसे वायदे देशव्यापी ही होने चाहिए?
क्या लागत और मूल्य में संतुलन पर सरकारें उदासीन हैं?
क्या कृषि उत्पादन से लेकर विपणन तक नई व्यवस्था की दरकार है?
दरअसल, इस देश में खेती,किसानी को लेकर जिस तरह का सरकारीकरण हैं, आम बोलचाल में कह दिया जाता है कि उपर करतार और नीचे पटवार…।
लेकिन इन्हीं पंक्तियों
के बीच में दर्द छिपा है किसानों का, व्यथा है धरतीपुत्रों की,तय सरकारों को करना है कि किसानों के नाम पर राजनीति की फसल लहलहानी है या वाकई खेतों में अन्न उगाना है। किसान अन्नदाता है, जो चाहिए वो मांग पूरी करने का दम-खम रखता है। जमीन से सियासत पैदा करवानी है या फिर फसलें, फैसला सरकार और विपक्ष को ही करना होता है।
Bureau Report
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