PAK: आगरा से ताल्‍लुक रखने वाली ‘बिहारी’ आवाज इस बार चुनाव में खामोश क्‍यों है?

PAK: आगरा से ताल्‍लुक रखने वाली 'बिहारी' आवाज इस बार चुनाव में खामोश क्‍यों है?पाकिस्‍तान: पाकिस्‍तान में पिछले तीन दशकों से कराची से एक बुलंद आवाज उठा करती थी. सिंध से लेकर कराची तक इस आवाज की नुमाइंदगी करने वाली मुत्‍ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्‍यूएम) के प्रत्‍याशियों के लिए उसका हर फरमान पत्‍थर की लकीर की मानिंद होता था. जी हां, यहां बात पाकिस्‍तान की चौथी सबसे बड़ी पार्टी माने जानी वाली एमक्‍यूएम नेता अल्‍ताफ हुसैन की हो रही है. दो दशक से भी ज्‍यादा वक्‍त से लंदन में स्‍व-निर्वासित जिंदगी गुजार रहे अल्‍ताफ हुसैन की गूंज इस बार पाकिस्‍तान के चुनावों में नहीं सुनाई दे रही है.

यह सवाल बड़ा इसलिए है क्‍योंकि मुहाजिरों (भारत छोड़कर पाकिस्‍तान में बसने वाले उर्दू जुबान के लोग) की सबसे बुलंद आवाज अल्‍ताफ हुसैन की मानी जाती है. उनको एमक्‍यूएम का पर्याय माना जाता है. उनकी बात का कौल इतना जबर्दस्‍त रहा है कि कराची में लगभग उनकी समानांतर सत्‍ता रही है. उनके कहने से शहर जागता, सोता या रोता रहा है. उनके कहने पर इस शहर में वोट पड़ते रहे हैं या चुनावों का बहिष्‍कार किया जाता रहा है.

अल्‍ताफ हुसैन
विभाजन से पहले अल्‍ताफ हुसैन के पिता भारतीय रेलवे में कार्यरत थे और आगरा में तैनात थे. 1947 में विभाजन के बाद बेहतर भविष्‍य की चाह में उनका परिवार पाकिस्‍तान के कराची में जाकर बस गया. वहीं पर 1953 में अल्‍ताफ हुसैन का जन्‍म हुआ. किशोरावस्‍था तक पहुंचते हुए अल्‍ताफ को पंजाबी दबदबे वाले पाकिस्‍तानी समाज में उर्दू भाषी मुहाजिरों के प्रति सौतेलेपन का अहसास हुआ. दरअसल मुहाजिरों को अपने ही वतन में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है. उनको तंज के रूप में ‘बिहारी’ कहकर संबोधित करने का अपमानजनक तमगा दे दिया गया.

1971 में बांग्‍लादेश के उदय के बाद पूर्वी पाकिस्‍तान से भागकर पश्चिमी पाकिस्‍तान गए लोगों को भी इसी तमगे के साथ जोड़ दिया गया. इसी के प्रतिरोध में 1978 में पहले छात्र संगठन और उसके बाद 1984 में राजनीतिक पार्टी के रूप में एमक्‍यूएम का उदय हुआ और अल्‍ताफ हुसैन मुहाजिरों के निर्विवाद नेता बनकर उभरे.

1988 के बाद से हर चुनाव में पूरे सिंध में अल्‍ताफ हुसैन की आवाज को शिद्दत के साथ महसूस किया जाता रहा है. यहां तक कि उनको पीर का दर्जा भी उनके समर्थकों ने दे दिया. इस बीच कराची में राजनीतिक हिंसाओं का दौर शुरू हुआ और 1992 में अल्‍ताफ हुसैन पाकिस्‍तान में अपनी जान को खतरा बताते हुए ब्रिटेन चले गए. 2002 में उनको ब्रिटिश नागरिकता मिल गई.

अल्‍ताफ हुसैन के पाकिस्‍तान में नहीं रहने के बावजूद उनकी सियासी हैसियत में कोई कमी नहीं आई. वह फोन और वीडियो संदेश से ही पार्टी को चलाते रहे. समर्थकों की उनमें अगाध आस्‍था बनी रही. परवेज मुशर्रफ के दौर में उनकी पार्टी सरकार में भागीदार भी थी. आज भी एमक्‍यूएम सिंध की दूसरी और पाकिस्‍तान की चौथी सबसे बड़ी पार्टी है. इस तरह 2016 तक अल्‍ताफ हुसैन पाकिस्‍तान की प्रमुख सियासी आवाजों में शुमार रहे.

‘पाकिस्‍तान दुनिया का कैंसर’
कराची में संगठित अपराध, लक्षित हत्‍याओं के मामले बढ़ने के चलते 2013 में नवाज शरीफ सरकार ने इसके खिलाफ अभियान शुरू किया. कहा जाता है कि ये कार्रवाई वास्‍तव में एमक्‍यूएम को ध्‍यान में रखकर शुरू की गई. इसके पीछे पाकिस्‍तानी सैन्‍य प्रतिष्‍ठान को माना गया. 2015 में एमक्‍यूएम के पार्टी हेडक्‍वार्टर नाइन जीरो पर पाकिस्‍तानी रेंजर्स ने दो बार रेड डाली. 2016 में इसको सील कर दिया गया और पार्टियों के सैकड़ों अन्‍य ऑफिसों को बंद कर दिया गया. 2015 में पाकिस्‍तान की आतंकवाद रोधी कोर्ट ने हत्‍या, हिंसा भड़काने और उकसाऊ भाषण देने के कई मामलों में 81 साल की सजा सुनाते हुए भगोड़ा घोषित कर दिया. इसी कड़ी में 2016 में अल्‍ताफ हुसैन ने एक इंटरव्‍यू में पाकिस्‍तान को दुनिया का कैंसर बताया.

उसके बाद एमक्‍यूएम के खिलाफ कार्रवाई तेज हो गई. पार्टी में दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले फारूक सत्‍तार समेत तमाम पार्टी सांसदों और नेताओं को पकड़ लिया गया. महीनों इनको जेल में बंद रखा गया. हालांकि इस बयान के लिए अल्‍ताफ हुसैन ने माफी मांगी क्‍योंकि अपने कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई के चलते वह तनाव में थे. इसकी परिणति यह हुई कि अल्‍ताफ हुसैन को घोषणा करनी पड़ी कि मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट पार्टी के फैसले अब वह खुद नहीं करेंगे. उन्होंने फैसले लेने के अधिकार पार्टी की कोऑर्डिनेशन कमेटी को दे दिए.

हालांकि सरकार की इन कार्रवाई का असर यह हुआ कि जब फारूक सत्‍तार जेल से रिहा हुए तो उन्‍होंने कहा कि अब पार्टी को लंदन से नहीं पाकिस्‍तान से संचालित किया जाना चाहिए. उसके बाद यह कहा गया कि सैन्‍य प्रतिष्‍ठान के इशारे पर एमक्‍यूएम में दो-फाड़ हो गया. फारूक सत्‍तार के धड़े वाला तबका एमक्‍यूएम-पाक कहलाया जाने लगा. इन सबके बावजूद एमक्‍यूएम और अल्‍ताफ हुसैन की आवाज को कुचलने के प्रयास पाकिस्‍तान में लगातार जारी हैं. उसी का नतीजा है कि 1988 से लगातार हर चुनाव में जिस अल्‍ताफ हुसैन की तूती बोलती थी, वह इस बार खामोश है.

Bureau Report

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*